मेरी कविता
मुझे सपने देखने दो ।
चलो अब कुछ अच्छा होने के
सपने देखे सुबह होने तक ।
सूरज निकलेगा और ग्रस लेगा
इस अँधेरे को शाम होने तक ।
फिर शाम आयेगी और
सूरज गर्त हो जायेगा उसके अन्दर
यही क्रम जीवन को चलाता रहेगा
उठाता रहेगा गिराता रहेगा
हम नियति का सड़क पर पड़ा
पत्थर बन लोगो की ठोकरों से
इधर उधर उछलते और गिरते रहेंगे
कुचलते रहेंगे स्वार्थो के टायर हमें
जब तक कही जमीन में
दफन नहीं हो जायेंगे हम ।
फिर भी तब सपने देखना तो
हमारी नियति भी है और अधिकार भी ।
क्या अब इतने ताकतवर हो गए है
कुछ लोग की
वो हमारे सपने भी
हँमसे छीन लेना चाहते है
पर पत्थर चाहे बेजान क्यों न हो
कभी ठोकर दे सकता है
तो कभी किसी उछाल से
घायल भी कर सकता है
इसलिए मुझ बेजान से भी खेलो मत
मुझे सपने देखने दो ।
चलो सपने देखे सुबह होने तक ।
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