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बुधवार, 28 मार्च 2012

                                        कांग्रेस क्यों हारी और समाजवादी पार्टी क्यों जीती                                                                                                                                                                  ( डॉ सी पी राय )                                                                                                                             राजनैतिक चिन्तक और स्तंभकार 
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                पांच राज्यों में चुनाव हुए जिसमे गोवा ,मणिपुर की तरफ किसी का ध्यान ही नहीं था सिवाय उन प्रदेशों के लोगो के लेकिन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस किसी चमत्कार की उम्मीद कर रही थी या कम से कम ये तो मान ही रही थी की दलितों के घर रुकने और खाना खाने से राहुल गाँधी बहुजन समाज पार्टी के प्रति उनके जातिगत रुझान को बदल देंगे। शायद ये भी उम्मीद थी कि केवल राहुल गाँधी की शक्ल पर सरकार बनाने के लिए जरूरी संख्या बन जाएगी । उत्तराखंड और पंजाब के बारे में भी आश्वस्त थी कि हर पांच साल बाद सरकार बदलने वाला फार्मूला जारी रहेगा और कई नेता अपनी पीठ ठोंक सकेंगे ।पर पंजाब ने जहाँ  नए तरीके से सोचा वही उत्तराखंड ने भी कांग्रेस पर पूरा भरोसा नहीं दिखाया या अपनी पुरानी परंपरा को मजबूती से पकडे हुए कांग्रेसी नेताओं ने एक दूसरे को हराने के लिए पूरी शिद्दत के साथ काम किया और अपने नेता और पार्टी के प्रति पूरी वफ़ादारी का परिचय दिया ।ले देकर खुश होने को एक उत्तराखंड मिला था पर तथाकथित हाई कमान और योग्य पर्यवेक्षकों के कारण ,किसी सचमुच जमीनी नेता को न पनपने देने कि परंपरा और आसमान से आदेश और नेता देने कि परम्परा ने खुश होने और अपनी पीठ ठोकने का मौका ही नहीं दिया । ये अलग बात है कि जमीनी नेता का जमीर विद्रोह तक जाने को तैयार नहीं हुआ और सरकार बन गयी ।पर बहुत दिनों बाद एक नेता ने हाई कमान और पर्यवेक्षकों को आइना दिखाने का काम कर दिखाया ।
                                           पर मै उत्तर प्रदेश पर सीमित करना चाहता हूँ जो भारत का ह्रदय प्रदेश है और जो रोगग्रस्त हो गया है । इस प्रदेश में मायावती जी की सरकार पार्कों और पर्तिमाओं में दलित विमर्श ढूढती रह गयी दलितों कि झोपड़ियों में अँधेरा ही रह गया ,उसका बच्चा स्कूल भी नहीं जा पाया और दवा से भी वंचित रह गया ।गर्रीबों कि बस्तिया और गाँव विकास के उजाले को तरसते ही रह गए पर वह रे जाति के गौरव का जूनून ,पूरी ताकत से फिर भी जातियां कड़ी रह गयी अपने को छलने वालों के साथ पर निर्णय केवल एक जाति नहीं करती है बल्कि तठस्थ लोग करते है जो लगातार अच्छे कि तलाश में है ।बहन जी  बेईमान अधिकारीयों की कठपुतली बन कर रह गयी । अधिकारीयों ने बर्खास्त हुए यादव सिपाहियों के डर का ऐसा हौवा दिखाया कि मुख्यमंत्री परछाइयों से भी डरने लगी और कल्पना लोक में विचरण ,किसी तानशाह की तरह की सनक और नवाबों ,राजाओं की तरह जीने और भव्यता दिखाने इच्छा ने उन्हें जनमानस से दूर कर दिया । ये तो पूरी तरह तय हो गया था कि वो जा रही है और सौ का आंकड़ा नहीं छू पायेंगी ।मायावती भी उसी सिद्धांत का शिकार हो चुकी थी कि किसी नेता या दल का एक चेहरा और पहचान होती है और उससे थोडा बहुत विचलन तो कार्यकर्ता और समर्थक तथा तठस्थ लोग पचा लेते है पर १८० डिग्री पर उनका बदल जाना कभी भी नहीं पचा है और किसी का नहीं पचा है ,वो चाहे कांग्रेस हो ,भा ज पा हो या सपा, सभी ने इसका खामियाजा भुगता है और इस बार मायावती की बारी थी ।नेता सत्ता पाते ही पता नहीं क्यों भोल जाते है कि राजनीती पहाड़ कि चढ़ाई है जो झुक कर चढ़ी जाति है ,चढाने के बाद पैर जमा कर ही पहाड़ पर टिका जा सकता है वर्ना फिर बर्फ कि फिसलन है जिसे कोई नारा कोई सहारा खाई में जाने से रोक नहीं सकता और बर्फ कि फिसलन का शिकार नेता होते रहते है अपने अपने कार्डों से पर सबक से दूरी बना कर रखना उनकी फितरत है ।  मुझे लगता है कि केवल मायावती और उनके कुछ अधिकारीयों को छोड़ कर कोई ऐसा नहीं था जो ये नहीं जानता हो कि जनता में उनकी सरकार के खिलाफ जबरदस्त अंडर करेंट है ये अलग बात है की कांग्रेस के कुछ हवाई नेता बसपा नामक डूबते हुए जहाज की सवारी करने की बात कर राहुल गाँधी के मिशन को पलीता लगा रहे थे ।
                           सवाल ये है की कुछ साल पहले जिस सपा को जनता ने बुरी तरह हरा कर हटाया था उसी को भारी बहुमत से जिताया क्यों और नयी छवि और नयी राजनीति की बात करने वाले राहुल गाँधी की पार्टी कांग्रेस को हराया क्यों ? ये भी देखना होगा की भाजपा का तमाम हथकंडों के बाद भी और कुशवाहा वोटो के लालच में बाबुराम कुशवाहा को गले लगाने और फिर से राम मंदिर को मुद्दा बनाने ,उमा भारती को आयात करने के बाद भी पहले से भी बुरा हाल क्यों हुआ ? जब ये सवाल चिंतन के धरातल पर खड़े होते है तो कोई शोध करने की जरूरत महसूस नहीं होती बल्कि सब कुछ किसी गाँव में बैठे हुए आदमी को भी साफ़ दिख रहा होता है दिल्ली में बैठे लोगो को दिखे या नहीं और वे आंकड़ों में कारण ढूढते रहे ।कांग्रेस ने एक दो नहीं कई गलतियाँ किया और कई लोगो के स्तर पर गलतियाँ हुयी ।सबसे पहले जिनके जिम्मे संगठन बनाने का काम था वे जीतने के लिए संगठन बनाने के स्थान पर पूरा संगठन या तो बेच रहे थे या अपने पैर दबाने वाले ,दरबान गिरी करने वाले जैसे तत्वों को भर रहे थे ।वे प्रधानमंत्री पद त्यागने वाली सोनिया गाँधी का खुद को सिपाही कह रहे थे पर जमीन और जमीर दोनों लगातार बेंच भी रहे थे ।वे राहुल के सिपाही थे पर उनके कुरते पर लगी धुल का सौदा कर अपने खजाने को भरना छह रहे थे ।
                                    जब चुनाव के लिए टिकेट देने का सवाल आया तब फिर यही कहानी दोहराई गयी .फिर टिकेट या तो बेंचे गए या चमचो को बांटे गए । बेनीप्रसाद वर्मा जैसे लोग जो कांग्रेस में आने के पहले विधान सभा चुनाव में जमानत जब्त करा चुके थे और किसी तरह कांग्रेस के टिकेट पर लोक सभा चुनाव जीत गए थे गाँधी परिवार सहित कुछ नेताओं को बहकाने में कामयाब हो गए कि वो चुनाव जिताऊ काम कर सकते है और हर तरह का फायदा उठाने में कामयाब रहे ,परिणाम सबके सामने आ गया कांग्रेस में ही चर्चा होने लगी कि बेनी बाबू बेईमान भी है और जनाधार विहीन भी । ऐसा ही काम अन्य नेताओ ने भी किया और खूब फायद उठाया । चुनाव के या संगठन बनाने के तीन नियम होते है कि १- जहा आप चुनाव में जा रहे है वहा हर स्तर के दर्द का पता होना चाहिए और उनको ध्यान में रख कर ही दोनों काम हो सकते है ।२-जिनके मुकाबले में आप को जाना है उनके सभी कमजोर पहलू पता भी होना चाहिए और उनपर केन्द्रित पूरा फैसलाकुन  हमला होना चाहियें ।३-अगर आपके पास वहा के लोगो को हर स्तर पर दिखानेके लिए कसौटी पर कसे हुए सपने नहीं है तो भी आप सफल नहीं हो सकते और इसी के साथ जरूरी ये भी है कि आप वहा कि मिटटी कि सुगंध में रचे बसे दिखे और वहा के लोगो कि भाषा में बात करते हुए  दिखे ।                                        
                                                    इन सभी मोर्चों पर कांग्रेस और भा ० जा ० पा ० फिसड्डी दिखाई पड़ी जहा अटल बिहारी वाजपयी जैसे नेताओं के आभाव में हवा हवाई बन गयी  भा जा पा २० साल पुराने मुद्दों और तरीकों के साथ आत्मविश्वास के आभाव से जूझती दिखलाई पड़ी और नेता ,नीति और सिद्धांतों पर बंटी हुयी दिखलाई पड़ी , वही कांग्रेस के रणनीतिकार भी द्वन्द ,अविश्वाश ,और एक दूसरे को परखनी देने के लिए जूझते दिखलाई पड़े । उनका जबरदस्त अहंकार ,आत्मप्रलाप ,मुद्दाविहीन और चिंतनविहीन सोच अंग्रेजी भाषा और विचार तथा दिल्ली के कमरों की शेख्चील्ली सोच ,इवेंट मैनेजमेंट और कार्यकर्ताओं के बजाय किराये के लोगो और पैसे से चुनाव जीतने या हर वक्त कुछ कमा लेने कि चिंता में दुबले होते लोग ही कांग्रेस के सेनापति थे । जहा सबसे बड़े नेता ने खुद को दाव पर लगा दिया पर ये हिम्मत नहीं कर पाए की सीधे दाव पर लगते और कह देते की चुनाव जिताओ तो मै खुद मुख्यमंत्री बनूँगा ये बुरा भी नहीं था की इतने बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री पद सम्हाल कर फिर कुछ अनुभव के साथ दिल्ली जाते पर समझाने वालों ने समझा दिया होगा की छोटे हो जायेंगे । उनको भाषण की राय देने वाले उन्हें पूरे चुनाव में केवल इंडिया शाइनिंग के आस पास और अडवाणी जी के पीछे घुमाते रहे और उन्हें फिल्मों का एंग्री यंग मैन बनाते रहे जो फिल्मों में चलता है असल जिंदगी में नहीं । जहा वो जनता से कुछ साफ़ साफ़ कहने के बजाय चीखते रहे और कागज फाड़ते रहे वही अखिलेश यादव ने केवल इतना कहा की पहले बाहें चढ़ाई ,फिर कागज फाड़ा ,देखना अगली बार कही मंच से न कूद जाये और उन्हें बहुत बौना कर दिया और खुद को उनसे बड़ा बना दिया ।
                                           जहाँ कांग्रेस के नेता किसे समर्थन देंगे ,किसकी सरकार बनवायेंगे या राष्ट्रपति शासन लगवाएंगे में उलझे रहे वही मुलायम सिंह और अखिलेश यादव केंद्र के घोटालों ,मंहगाई और उत्तर प्रदेश की सरकार के भ्रस्ताचार पर कुछ शब्द बोल कर बाकी पूरे समय जनता के दर्द को सहलाते और फिर समाज के किस वर्ग के लिए क्या करेंगे ये सधे शब्दों में बताते रहे ,उन्हें जीतना ही था । जहा कांग्रेस इवेंट मैनेजमेंट की तरह काम करती रही और हर चीज को हल्के से लेती रही वही मुलायम सिंह अपने अनुभव और तमाम लोगो की राय को महत्व देते हुए तत्काल फैसले लेते रहे और अपने कार्यकर्ताओं को उतसाहित कर रहे थे ।जहा कांग्रेस में कोई किसी से बात करने में हेठी समझता है वाही मुलायम सिंह दूर हो गए साथियों सहित सभी काम के लोगो को जोड़ रहे थे । किसी भी तरह अपने सबसे मजबूत साथी रहे आज़म खान को वापस लेन का उन्होंने जो प्रयास किया वो रंग भी लाया और आज़म कि घर वापसी के साथ ही समाजवादी पार्टी एक बार फिर सत्ता के करीब दिखाने लगी थी और परिणामों ने उनकी उपयोगिता सिद्ध भी कर दिया । जहा कांग्रेस एक के बाद एक पर्यवेक्षक भेज रिपोट मंगाना ,फिर कई तरह की कमेटियों में कई हफ़्तों कसरत करती रही( जिससे अच्छा टिकेट वितरण शायद तब हो जाता जब कांग्रेस हर सीट के उम्मीदवारों कि पर्ची किसी डिब्बे में डाल कर एक एक निकाल कर टिकेट बाँट देती ),  मुलायम सिंह यादव अपने ज्ञान से लखनऊ में बैठे बैठे संगठन और टिकेट बांटना दोनों काम करते रहे क्योकि वो हर जिले और शहर में कई दर्जन लोगो को सीधे नाम और काम से जानते है जबकि कांग्रेस में नेता कोटरी से बाहर निकलना ही नहीं चाहते और स्वयं को सर्वज्ञानी समझ बैठे है ।मुझे तो लगता है कि यदि कांग्रेस बदली नहीं ,बड़े लोग अपने बाड़े से बाहर नहीं निकले और बेनी ,रीता जैसे सैकड़ों लोगो को ऊपर से नीचे तक बाहर कर नए सिरे से संगठन, संगठन की तरह  नहीं बनाया गया ,पर्यवेक्षक प्रणाली के बजाय सीधे जिलों को जानने और कार्यकर्ताओं को जानने और उनसे सीधे संपर्क रखने की व्यवस्था नहीं बनाई गयी तो कांग्रेस का लगातार पतन होना है और मृदुभाषी अखिलेश हो या नितीश कुमार उनके नेतृत्व में उनके दल बढ़ते जायेंगे ।अगले लोक सभा चुनाव में मेरी बात सही साबित हो जाएगी ।चाहे तो बदल जाये नहीं तो जनता बदल जाने को मजबूर कर देगी पर तब तक बहुत कुछ ख़त्म हो चूका होगा ।
                              पिछले चुनावों ने कुछ  बातें साफ़ कर दिया है की १- जनता अब किसी एक को पूर्ण बहुमत देना चाहती है ,२-जनता नेता की छवि और भाषा तथा भूषा को ध्यान से देख रही है ३- जनता नेता और उसकी छवि को देख रही है जो  मुलायम सिंह ने अखिलेश को आगे कर कर दिखाया ४-जनता किसी से चमत्कार की उम्मीद नहीं करती पर ये जरूर चाहती है कि नेता या दल जो कहे वो करते दिखलाई दे और प्रयास करते दिखे की वो करना चाहते है ये विश्वास मुलायम सिंह ने जीता है ५- जनता घमंड ,अहकार को बर्दाश्त नहीं करती है बल्कि कोई राजनीती में रहना चाहता है तो उसको सौम्य और विनम्र होना ही पड़ेगा ।6- कुछ नया कहना है या करना है तो चुनाव से ठीक पहले कहने और करने पर विश्वास नहीं होता ,कुछ पहले कहे और करें । क्या कांग्रेस और कांग्रेसी नेता ये समझ पाएंगे ? क्या अखिलेश अपनी विनम्रता और सौम्यता को बरक़रार रख पाएंगे ? क्या पहले दिन शपथ लेते ही सभी का  एक बड़े व्यवसायी के यहाँ चले जाने क्या पुरानी छवि बदल पाएंगे ? क्या खुद को नया उत्तर प्रदेश बनाने वाला सिद्ध कर पाएंगे ? क्या समाजवादी पार्टी को पुराने तरीकों से निकाल पाएंगे ? ऐसे पहाड़ जैसे सवाल मुह बाये हुए खड़े है जिनका उत्तर समय देगा और अखिलेश तथा उनकी पार्टी को भी देना पड़ेगा । बहुमत नशा न बन जाये इसके लिए हर वक्त चौकन्ना भी रहना होगा और हर वक्त कुछ करने ,नया करने के लिए चैतन्य  भी रहना होगा चाहे इसके लिए कुछ टोकने वालों  को बर्दाश्त क्यों न करना पड़े ।वर्ना पहली बार ही छवि बिगड़ गयी तो ============= ।राजनीति और वक्त सबका हिसाब करते है ।
                                    
                                                                                                                             डॉ ० सी ० पी ० राय 
                                                                                                           राजनैतिक चिन्तक और स्तंभकार